Wednesday, April 5, 2023

इश्क़ इश्क़ है

 इश्क़ इश्क़ है 

कोई काम नहीं कि मुश्किल या आसान
जो निभ जाये तो आसान जो बुझ जाए तो मुश्किल 
जो मिल जाए तो बेक़द्री 
जो ना मिले तो बेदर्दी

वक़्त निकल जाता है हाँ तब ये ख़याल आता है!!!

 जब वक़्त निकल जाता है तब ख़याल आता है,

जो हाथ बढ़ा देते तो आज ज़िंदगी बाहों में होती,
जो बढ़ के रोक लेते तो ख़ुशियाँ यूँ रूठी ना होती...

जब वक़्त निकल जाता है तब ख़याल आता है,
जो निगाहे यूँ सर्द ना होती तो आज तमन्नाएँ यूँ ज़र्द ना होती,
कुछ तो कहा होता की ज़ुबां यूँ ख़ामोश ना होती...

जब वक़्त निकल जाता है तब ख़याल आता है,
जो बारिशों को पिरोया होता तो ख़्वाबों की नदियाँ यूँ प्यासी ना होती,
जो रंगों को सुखाया ना होता तो अपना भी एक धनक होता...

जब वक़्त निकल जाता है तब ख़याल आता है,
जो तिनके ही बिखेरे ना होते तो घरोंदा आज भी उसी शाख़ पर होता,
जो कफ़न को “अपने” ख़ुद ही सिया ना होता तो वो किसी का दामन मेरा सरमाया ही होता...

जब वक़्त निकल जाता है तब ख़याल आता है,
कि जो नशे में प्याले यूँ तोड़े ही ना होते तो मयखानो ने यूँ मूँह मोड़ा ना होता,
जो मुट्ठी को बंद ही ना की होती तो वक़्त यूँ दरारों से फिसला ही ना होता...

वक़्त निकल जाता है हाँ तब ये ख़याल आता है!!!

कांच की मिट्टी से बने ये रिश्ते

 कोई रिश्तों की दुहाई देता रहा 

कोई रिश्तों से रिहाई लेता रहा
देखो तो मुलायम छू लो तो खुश्क
कांच की मिट्टी से बने ये रिश्ते 

हर तरफ़ है इंसानी बसेरे 
ढूँढो एक तो निकले मकान घनेरे
लेकिन घरों के अंदर रहते 
बेजान रूठे ठंडे से लगते
कांच की मिट्टी के बने ये रिश्ते 

रगों से जिनकी बनते थे रिश्ते 
आज वहाँ सिर्फ़ नमक है बहते 
जिस्म भी सूखे रूह भी रूखे
आँखें भी हैं नमी के भूखे 
कांच की मिट्टी के बने ये रिश्ते

ना माँ का प्यार ना बच्चे का दुलार 
ना पिता का साथ ना भाई का हाथ 
सब कुछ है नोटों की बात 
साथ है सिर्फ़ जब तक देते वो हाथ
आख़िर कांच की मिट्टी के बने ये रिश्ते

ना मोहब्बत ना वफ़ाएँ
कौन किसका प्रीतम यहाँ पर
ज़िंदा यहाँ मुर्दा हो जाए 
खरा यहाँ कुछ चलता नहीं है
सबने सिर्फ़ हैं सोने के परत चढ़ाए
कांच की मिट्टी के बने ये रिश्ते
हाथ लगाओ बिखरते चले जाएँ

आशिक़

आशिक़ आशिक़ी से नहीं मिज़ाज से होते हैं 

धड़कने दिलों से नहीं नज़रों से बढ़ती हैं 
ज़बान देख कर जिनको अंदर ही रुक जाए 
लफ़्ज़ उनकी आवाज़ सुनते ही जो गूँगी हो जाए 
आशिक़ ऐसे ही जनाब नहीं बनते
कमबख़्त उनके गली के चौराहे पर मार खा खा कर ही बनते हैं 

अगर उसके भाई और अपने बाप का डर ना हो 
तो मजनू की तरह कपड़े फाड़ कर
लैला-लैला गली में पुकार कर आशिक़ बन जाते 
लेकिन क्या करें अब तो लैला को भी आशिक़ मजनू जैसा फटेहाल नहीं 
एकदम फ़िल्म स्टार जैसा चाहिए 
आशिक़ी हो ना हो बस एक आशिक़ मिज़ाज होना चाहिए
बाक़ी सब तो उसके पास होगा ही 
मोहब्बत का क्या है वो तो आज एक माँगो  कल कई मजनू आकर दे जाएँगे

आशिक़ी के दौर आते हैं और आशिक़ के चेहरे भी बदल जाते हैं
पहले वो दर पर मेरे सुबह 5 बजे ही फूल लेकर आते थे
अब  शाम को 5 बजे दूध की थैली लिए आते हैं 
वो भी एक आशिक़ी का दौर था और यह भी एक आशिक़ की कहानी है
तब लबों पर मुस्कुराहट थी और अब पेशानी पर सलवटे हैं
आशिक़ी तब रूमानी थी और अब ज़िम्मेदारी है
आशिक़ी के दौर आते हैं और आशिक़ के चेहरे भी बदल जाते हैं
  
यह युँह ही बस

क्षितिज

 चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे

जहां धरती के चलन ना हों 
और आकाश के भी भरम ना हों 

जहां ज़माने के रस्मों रवायत ना हों
बस सिर्फ़ वो मोहब्बत हो जो इंसान की बनाई ना हो 
वहाँ ना तो पैरों की वो चुभन हो ना सीने की वो जलन हो 
बस फूलों की महकती हुई डालों के दोलन हों 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

जहां ना कोई बड़ा हो ना छोटा हो 
जहां समता का कोई पैमाना ना हो 
चलते हुए को झुकना ना हो 
झुकते हुए को टूटना ना हो 
जो टूट भी जाए कोई तो सम्भालने वाला दिल “छोटा-सा” ना हो 
अपना ना हो ना सही लेकिन कहीं से बेगाना भी ना हो 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

जहां आंसुओं की कोई जगह ना हो 
जहां किसी का कोई दोष ना हो 
जहां कोई भी रोष ना हो 
जहां किसी के आने की ख़ुशी का समय ना हो 
ऐसे रुक जाए समय वोहि 
कि किसी के जाने का ग़म भी ना हो 
ऐसे रुक जाए समय वोहि
कि ना तुम गुम हो जाओ और ना मैं ही कुछ भूल जाऊँ कहीं
ऐसे समय रुक जाए वोहि 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

अजनबी राही

देखे जो सपने साथ साथ वो जी ना सकें हम, 

कुछ नींद से ऐसे जागे कि सपने बिखर गए,
कुछ तेरी वो ख़ता कुछ मेरी वो वफ़ा,
ना जाने कब हम राही से कुछ अजनबी से बन गए!

सीने पर बोझ, तेरे इश्क़ का, लेकर के चलते रहे,
ना जाने कब वो मोहब्बत थम गए, और बोझ बढ़ते चले गए।
कभी जो मुड़ कर देखा भी तो धुंधला था इतना समाँ,
के अपने ही कातिल के साये को अपना मसीहा समझ लिए।
दिल की नादानी तो देखो कि जब माहजबिं ने दामन छुढ़ा लिया,
उसको भी उसकी मोहब्बत की अदायें ही समझ लिए!

चाहत की इतनी चाह थी कि ख़ूने दामन को लेकर के लड़खड़ाते रहे हम,
उसके हरेक ज़हर को मरहम ही समझ लिए, 
राही जो बनके चले थे हम कुछ अजनबी से हो लिए!

माना के तेरे साथ की चाहत बहुत थी लेकिन तेरे साथ की क़ीमत भी बहुत थी, 
पहले ही ज़ख़्म के बोझ थे बहुत, के और क़ीमत चुकाने की तहम्मुल ही नहीं थी।
टूटते हुए हौसलों में कुछ इतना भी ना बचा था, 
कि अपनी ही रूह को गिरवी रखके तेरे सदके ही कर देते!

राह थी वोहि लेकिन राही वो नहीं,
इतना टूट गए के अब तो, नए राह की गुंजाइश भी नहीं,
राही जो बन कर चले थे कुछ कदम, अब वो अजनबी ही हो लिए!!! अब वो अजनबी ही हो लिए!!!

एक “आम वीर”


वीर चला है घर से अपने पथ पर चलने को, पीछे छोढ़ चला है जीवन के अपने रत्नो को , रोज़ है चलता सुबह सवेरे दिन का बोझ उठाने को, 
घूँट घूँट सपनो को पीता, बच्चों के पंख बढ़ाने को,
कहीं किसी से बातें सुनता अप्रिय शब्दों की जाली से,
रोज़ है कड़वे घूँट वो पीता पेट की आग बुझाने को,
जब थक जाता दो घड़ी सुस्ताने को, 
अपने ही हाथों अँगोछा लेकर पोंछे अपनी ही  पेशानी को,
ग़र खड़ा हो कहीं जो मुश्किल सीना ताने आगे से ,
उसके आगे बहुशाली बनकर वीर खड़ा हर क़ोने में!

वीर रस की कई कहानी कहता हर कोई सरहद पर,
घर से निकलो झांको अपने बगलों में,
घर के आगे सरहद होगी, वीर मिलेंगे चौराहों पे,
कहीं खड़े हैं सिर को बांधे, तो कहीं है हाथों को,
वीर सिपाही खड़ा यहीं है, लड़ता “समता” के पैमानो से!

कोई कहता आगे बढ़ जा, कोई खींचे बाहों से
नहीं है आसां किसी जंग से, “जीवन का जीवन जीने में”
सरहद पर खड़ा वीर है, लड़ता केवल दुश्मन से 
जीवन के वीर तो लड़ते है अपने ही खून के नामों से 
नहीं है कहता वीर कोई उनको, ना ही तमग़े मिलते हैं 
ना कोई कहता कविता उनपर 
मरते लड़कर जो अपने जीवन से!