वो चला था कल घर की ओर
मन ही मन सोचता हुआ
घर जाऊँगा माँ से कहूँगा रोटी खिला
भागवान से कहूँगा आ बैठ कुछ अधूरी बातें करें
बालक को जी भर के देखूँगा, संग में लुका-छिपी खेलूँगा
इसी उम्मीद पर चलता गया
संग दस थे राह में, कुछ चंद रह गए
चलते चलते ना जाने कब थक गया
आँख लगी और सो गया
सपनो में बस चलता चला गया
इसी उम्मीद की किरण में
ना जाने वो कहाँ खो गया...
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And you said...