आशिक़ आशिक़ी से नहीं मिज़ाज से होते हैं
धड़कने दिलों से नहीं नज़रों से बढ़ती हैं
ज़बान देख कर जिनको अंदर ही रुक जाए
लफ़्ज़ उनकी आवाज़ सुनते ही जो गूँगी हो जाए
आशिक़ ऐसे ही जनाब नहीं बनते
कमबख़्त उनके गली के चौराहे पर मार खा खा कर ही बनते हैं
अगर उसके भाई और अपने बाप का डर ना हो
तो मजनू की तरह कपड़े फाड़ कर
लैला-लैला गली में पुकार कर आशिक़ बन जाते
लेकिन क्या करें अब तो लैला को भी आशिक़ मजनू जैसा फटेहाल नहीं
एकदम फ़िल्म स्टार जैसा चाहिए
आशिक़ी हो ना हो बस एक आशिक़ मिज़ाज होना चाहिए
बाक़ी सब तो उसके पास होगा ही
मोहब्बत का क्या है वो तो आज एक माँगो कल कई मजनू आकर दे जाएँगे
आशिक़ी के दौर आते हैं और आशिक़ के चेहरे भी बदल जाते हैं
पहले वो दर पर मेरे सुबह 5 बजे ही फूल लेकर आते थे
अब शाम को 5 बजे दूध की थैली लिए आते हैं
वो भी एक आशिक़ी का दौर था और यह भी एक आशिक़ की कहानी है
तब लबों पर मुस्कुराहट थी और अब पेशानी पर सलवटे हैं
आशिक़ी तब रूमानी थी और अब ज़िम्मेदारी है
आशिक़ी के दौर आते हैं और आशिक़ के चेहरे भी बदल जाते हैं
यह युँह ही बस
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