Wednesday, April 5, 2023

क्षितिज

 चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे

जहां धरती के चलन ना हों 
और आकाश के भी भरम ना हों 

जहां ज़माने के रस्मों रवायत ना हों
बस सिर्फ़ वो मोहब्बत हो जो इंसान की बनाई ना हो 
वहाँ ना तो पैरों की वो चुभन हो ना सीने की वो जलन हो 
बस फूलों की महकती हुई डालों के दोलन हों 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

जहां ना कोई बड़ा हो ना छोटा हो 
जहां समता का कोई पैमाना ना हो 
चलते हुए को झुकना ना हो 
झुकते हुए को टूटना ना हो 
जो टूट भी जाए कोई तो सम्भालने वाला दिल “छोटा-सा” ना हो 
अपना ना हो ना सही लेकिन कहीं से बेगाना भी ना हो 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

जहां आंसुओं की कोई जगह ना हो 
जहां किसी का कोई दोष ना हो 
जहां कोई भी रोष ना हो 
जहां किसी के आने की ख़ुशी का समय ना हो 
ऐसे रुक जाए समय वोहि 
कि किसी के जाने का ग़म भी ना हो 
ऐसे रुक जाए समय वोहि
कि ना तुम गुम हो जाओ और ना मैं ही कुछ भूल जाऊँ कहीं
ऐसे समय रुक जाए वोहि 
चलो लेकर ऐसे ही क्षितिज के परे 
जहां धरती के चलन ना हो 
और आकाश के भरम ना हों 

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